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इस यात्रा का पहला भाग जिसमें हम दिल्ली से कालका तक आए थे पढ़ने के लिए यहाँ जाएं।
कालका शिमला टॉय ट्रैन के बारे में जानकारी: साभार विकिपीडिया।
कालका स्टेशन की दीवार पर एक पेंटिंग।
ब्रिटिश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को कालका से जोड़ने के लिए १८९६ में दिल्ली अंबाला कंपनी को इस रेलमार्ग के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। समुद्र तल से ६५६ मीटर की ऊंचाई पर स्थित कालका (हरियाणा) रेलवे स्टेशन को छोड़ने के बाद ट्रेन शिवालिक की पहाड़ियों के घुमावदार रास्ते से गुजरते हुए २,०७६ मीटर ऊपर स्थित शिमला तक जाती है।
रेलमार्ग:
दो फीट छह इंच की इस नैरो गेज लेन पर नौ नवंबर, १९०३ से आजतक रेल यातायात जारी है। कालका-शिमला रेलमार्ग में १०३ सुरंगें और ८६९ पुल बने हुए हैं। इस मार्ग पर ९१९ घुमाव आते हैं, जिनमें से सबसे तीखे मोड़ पर ट्रेन ४८ डिग्री के कोण पर घूमती है।
वर्ष १९०३ में अंग्रेजों द्वारा कालका-शिमला रेल सेक्शन बनाया गया था। रेल विभाग ने ७ नवम्बर २००३ को धूमधाम से शताब्दी समारोह भी मनाया था, जिसमे पूर्व रेलमंत्री नितीश कुमार ने हिस्सा लिया था। इस अवसर पर नितीश कुमार ने इस रेल ट्रैक को हैरिटेज का दर्जा दिलाने के लिए मामला यूनेस्को से उठाने की घोषणा की थी।
विश्व धरोहर स्थल।
यूनेस्को की टीम ने कालका-शिमला रेलमार्ग का दौरा करके हालात का जायजा लिया। टीम ने कहा था कि दार्जिलिंग रेल सेक्शन के बाद यह एक ऐसा सेक्शन है जो अपने आप में अनोखा है। यूनेस्को ने इस ट्रैक के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए भरोसा दिलाया था कि इसे वल्र्ड हैरिटेज में शामिल करने के लिए वह पूरा प्रयास करेंगे। और अन्ततः २४ जुलाई २००८ को इसे विश्व धरोहर घोषित किया गया।
६० के दशक में चलने वाले स्टीम इंजन ने इस स्टेशन की धरोहर को बरकरार रखा है और यह आज भी शिमला और कैथलीघाट के बीच चल रहा है। इसके बाद देश की हैरिटेज टीम ने इस सेक्शन को वल्र्ड हैरीटेज बनाने के लिए अपना दावा पेश किया था।
कालका शिमला रेल रूट के प्रमुख स्टेशन और उनकी दूरियाँ:
0 किमी कालका
6 किमी टकसाल
11 किमी गुम्मन
17 किमी कोटी
27 किमी सनवारा
33 किमी धर्मपुर
39 किमी कुमारहट्टी
43 किमी बड़ोग
47 किमी सोलन
53 किमी सलोगड़ा
59 किमी कंडाघाट
65 किमी कनोह
73 किमी कैथलीघाट
78 किमी शोघी
85 किमी तारादेवी
90 किमी टोटु (जतोग)
93 किमी समर हिल
96 किमी शिमला
इस रूट पर चलने वाली ट्रेनों की जानकारी लेने के लिए यहाँ जाएं।
मेरा बहुत मन था इस ट्रेन की यात्रा करने का जिसे वर्ल्ड हेरिटेज (विश्व धरोहर) का खिताब मिला हुआ है और इसी वजह से मैंने दिल्ली की ट्रेन की टाइमिंग से मैच करती हुई एक टॉय ट्रेन की हम सब लोगों की बुकिंग करवा ली थी। वैसे तो इस रूट पर काफी सारी ट्रेनें चलती है जिसमें सबसे तेज़ गति है कार की, जो कि सिंगल डिब्बे की ट्रेन है जिसमें बैठकर आपको कार जैसा एहसास होता है। ख़ैर मैंने बुकिंग कराई थी 6:30 बजे चलने वाली कालका शिमला टॉय ट्रेन में जिसमें मात्र 90 रु के टिकट में हमें AC कोच जो कि कुछ दिन पहले ही विस्ताडोम कोच में परिवर्तित हुआ है उसमें जगह मिल गयी थी।
यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अगर पहाड़, हरियाली आपको आकर्षित नहीं करते तो ये सफ़र आप के लिए बिल्कुल नहीं है क्योंकि इस सफ़र में करीब 4 से 5 घण्टे आपको सिर्फ यही सब देखना को मिलता है।
आसमान में दिखती सुबह की लालिमा।
अभी हल्का अंधेरा था, तय समय पर ट्रेन चल दी, और हम लोगों ने अपना सामान व्यवस्थित करके अपनी अपनी सीट पकड़ ली। मैं खिड़की की तरफ हाथ में कैमरा लेकर बैठा हुआ था, हमारे पास नाश्ते और खाने के समान की कोई कमी नहीं थी। ट्रैन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी, यहाँ पर ध्यान देने वाली बात ये है कि ये ट्रैन कालका में ६५६ मीटर की ऊँचाई से अपना सफर शुरू करती है और शिमला में २,०७६ मीटर की ऊँचाई पर पहुँच जाती है, पहाड़ों में इतनी ऊँचाई ट्रैन से तय करना आसान काम नहीं होता इसी वजह से ये ट्रैन रूट विश्व धरोहर में आता है।
इस सफर का पहला स्टेशन कोटी।
थोड़ा आगे बढ़ने पर पहला स्टेशन आया जहाँ ट्रैन रुकी और काफी लोग अपने डिब्बों से बाहर आकर सेल्फी लेने में लग गए, बाकी कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने सेल्फी के आगे प्रकृति को रखा और तस्वीरें निकालने में लग गए। मेरे हाथ में भी कैमरा था और मैं भी इस यात्रा को तस्वीरों के रूप में कैद करने में लगा था। यहाँ से आगे बढ़े हल्की सी भूख लगने लगी थी तो हमने अपने बैग में से नाश्ते आदि का सामान निकाल लिया और प्रकृति को नाश्ता करते हुए निहारने लगे। ग़ज़ब का पल था ये, हाथ में नाश्ता लिए, पहाड़ देखना वो भी ट्रैन से, वो भी ऐसी ट्रैन जिसकी छत भी काँच की हो।
ट्रैन आगे बढ़ती जा रही थी और पहाड़ों की खूबसूरती भी उसी तरह बढ़ती जा रही थी, मुझे कालका से शिमला की इस यात्रा के दौरान पड़ने वाले तमाम स्टेशन में से सिर्फ एक स्टेशन का नाम पता था और वो था "बड़ोग"। और ये नाम भी मुझे अभी कुछ दिन पहले ही मेरे एक फेसबुक मित्र की पोस्ट से पता लगा था जिनका नाम है रणविजय सिंह रवि, रणविजय भाई हिंदी में कमाल का लिखते हैं, इनकी पागल मन की बातों के मेरे जैसे काफी लोग दीवाने हैं। वैसे तो रणविजय भाई रोज़ मर्रा की ज़िंदगी की भिन्न भिन्न पहलुओं पर लिखते हैं मगर बड़ोग की खूबसूरती पर इन्होंने पूरा एक यात्रा वृतांत लिखा था जिसे पढ़कर मेरे मन में ख्याल आया था इस स्टेशन की खूबसूरती को देखने का, वो अलग बात है कि तब पता नहीं था कि ये मौका जल्द मिलने वाला है।
इस रूट का सबसे खूबसूरत स्टेशन बड़ोग।
रंग बिरंगा संसार।
अभी सुबह का खुमार पूरी तरह गया नही था और पहाड़ों में वैसे भी जहाँ पर सूरज की धूप नहीं आती वहाँ पर ठीक ठाक सर्दी रहती है, कुछ ऐसा ही दृश्य हमें देखने को मिला। हल्की सी धुन्ध के बीच ट्रैन बड़ोग स्टेशन पर रुकी, हमारे पास एक व्यक्ति बैठे थे जो इस रूट पर कई बार सफर कर चुके थे, उन्होंने हमें बताया कि ट्रैन यहाँ 10 मिनट के लिए रुकेगी, बस फिर क्या था हम लोग अपनी बोगी से उतर गए इस स्टेशन की खूबसूरती निहारने। मैं आसपास के दृश्य को कैमरे में कैद करने में जुट गया और साथ वाले लोग थर्मस में चाय लेने, समोसे, छोले कुलचे लेने में व्यस्त थे। मैं ट्रैन के पीछे की तरफ गया तो देखा कि स्टेशन के पीछे ही एक सुरंग थी और उसमें अभी भी इंजन का छोड़ा हुआ धुआँ धीरे धीरे बाहर आ रहा था, ये दृश्य कुछ ऐसा था जैसे ये सुरंग किसी और दुनिया का द्वार हो जिससे होकर हम यहाँ आये है।
एक बेहद खूबसूरत रेलवे ट्रैक और सुरँग।
मैं यहाँ से अपने साथ इन सभी यादों को तस्वीरों में कैद करके ले जाने के मूड में था तो मेरे हाथ कैमरे पर लगातार चल रहे थे, वही पास में एक दीवार पर कार ट्रैन की पेंटिंग बनी हुई थी, मैंने उसे भी तस्वीर में कैद कर लिया और सौभाग्यवस वो तस्वीर ऐसी आयी जैसी जीवित इंसान हो। सुरँग, उस तक जाती पटरियाँ ये सब बेहद ही खूबसूरत लग रहे थे, ऊपर से ये हल्की हक्की सी धुन्ध इसे और ज्यादातर खूबसूरत बना रही थी।
दीवार पर बनी हुई कार ट्रैन की पेंटिंग।
तस्वीरें निकालते हुए मुझे पता ही नहीं लगा कि कब 10 मिनट बीत गए और ट्रैन के हॉर्न को सुनकर मैंने जल्दी से कैमरा बन्द किया और अपनी बोगी में चढ़ गया। यहाँ से शुरू हुआ चाय, नाश्ते का एक और दौर। अच्छा यहाँ मैं आपको बताना चाहूँगा की बड़ोग स्टेशन पर बिकने वाले छोले कुल्चे काफी स्वादिष्ट है तो कभी यहाँ से गुज़रें तो इनका स्वाद लेना न भूलें।
खाने पीने और बतियाने में अगला एक घंटा कब गुज़र गया पता भी नही चला। बातचीत का दौर चल ही रहा था कि तभी अचानक से एक मोड़ पर हमारे सीधे हाथ पर मेरी नज़र चाँदी के पहाड़ों पर पड़ी, यहाँ चाँदी के पहाड़ से मेरा मतलब बर्फ के पहाड़ से है, ये नाम मैंने चोपता तुंगनाथ की यात्रा पर बर्फ से घिरे पहाड़ों को दिया था।
बर्फ पहाड़ों पर पड़ती धूप की किरणें उसे और ज्यादा चमकदार बना रहीं थीं, ये ठीक वैसे था जैसे चाँदी के ऊपर थोड़े से सोने के कण। ये पहाड़ हमसे काफी दूर थे और मेरे पास इतने लंबे ज़ूम वाला लेंस नहीं था कि में इसके फ़ोटो ले पाता, उस दृश्य को मैंने अपने मन में बसा लिया और आगे चलते रहे।
ट्रैन रूट से दिखता शिमला।
अब शिमला ज्यादा दूर नहीं था, नज़ारे देखते हुए मैंने अपनी पिछली यात्राओं के पल अपने दोस्तों के साथ साझा किए, कुछ अपनी कही कुछ उनकी सुनी। दोस्तों के मन में आया की एक लूडो का खेल हो जाये तो तुरंत मोबाइल निकाल लिया गया और 4 लोग बैठ गए लूडो की बिसात पर। कभी कभी लगता है मोबाइल ने कुछ चीजें कितनी आसान कर दीं हैं मगर इसकी भी कीमत कहीं न कहीं हम चुका रहे हैं।
लूडो की एक निपटाने के बाद मैं, जतिन, प्रदीप गेट के पास जाकर खड़े हो गए, इस रूट पर सबसे ज्यादा अच्छा तब लगता है जब ट्रैन किसी मोड़ पर मुड़ती है और हम लोगों को ट्रैन का धुआँ देता हुआ इंजन दिखाई देता है या फिर जब ट्रैन किसी सुरँग में से होकर धुएँ के गुबार को चीरते हुए बाहर निकलती है या फिर किसी मोड़ पर ट्रैन से बर्फ से लदे पहाड़ दिखते हैं, कसम से पैसा वसूल हो जाता है इस यात्रा का। इन सारे दृश्य को देख कर मेरे जहन में दोस्त फिल्म का एक गाना लगातार बज रहा था:
गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है,
चलना ही ज़िंदगी है, चलती ही जा रही है।
देखो वो रेल, बच्चों का खेल, सीखो सबक जवानों,
सर पे है बोझ, सीने में आग, लब पर धुवाँ है जानो,
फिर भी ये जा रही है, नगमें सुना रही है।
आगे तूफ़ान, पीछे बरसात, ऊपर गगन में बिजली,
सोचे न बात, दिन हो के रात, सिगनल हुआ के निकली,
देखो वो आ रही है, देखो वो जा रही है।
आते हैं लोग, जाते हैं लोग, पानी मे जैसे रेले,
जाने के बाद, आते हैं याद, गुज़रे हुए वो मेले,
यादें बना रही है, यादें मिटा रही है।
गाड़ी को देख, कैसी है नेक, अच्छा बुरा न देखे,
सब हैं सवार, दुश्मन के यार, सबको चली ये लेके,
जीना सिखा रही है, मरना सिखा रही है।
गाड़ी का नाम, ना कर बदनाम, पटरी पे रख के सर को,
हिम्मत न हार, कर इंतज़ार, आ लौट जाएं घर को,
ये रात जा रही है, वो सुबह आ रही है।
सुन ये पैगाम, ये है संग्राम, जीवन नहीं है सपना,
दरिया को फ़ांद, पवर्त को चीर, काम है ये उसका अपना,
नींदें उड़ा रही है, जागो जगा रही है।
जीवन का सफर भी इन पटरिओं की तरह ही है, इसमें कभी हम अपनों के साथ होते हैं और कभी जुदा।
इस गाने और आसपास के मंत्रमुग्द करने वाले दृश्यों से मेरा ध्यान हटाया मेरे फोन की घण्टी ने, फोन था सुनील भाई का जिनके होमस्टे में हमें रुकना है, वो जानना चाहते थे की हम लोग अभी कहाँ हैं और उन्होंने हमें गाड़ी वाले भैया जो हमें शिमला के रेलवे स्टेशन से लेने आने वाले थे उनका न. भी भेज दिया था। मैंने सुनील भाई को अभी आखिरी कौन सा स्टेशन निकला है उसकी जानकारी दी और उन्होंने उस जानकारी के अनुसार गाड़ी वाले भैया को हमें लेने भेज दिया, अभी हम शिमला से 4 स्टेशन पीछे थे। अगला स्टेशन आया तारादेवी यहाँ पर किसी कारण से ट्रैन को 15 मिनट के लिए रोका गया, हमें आज के दिन कहीं जाना नहीं था तो हमें ट्रैन की इस देरी से कोई दिक्कत नहीं हुई, हम लोग नीचे आ गए और मैं फिर से अपनी उँगलियाँ कैमरा पर चलाने लगा।
तारादेवी स्टेशन।
यहाँ से निकलने के बाद अगले जिस स्टेशन पर ट्रैन रुकी वो था समर हिल, अंग्रेजों के समय ये जगह उनके लिए गर्मिओं की सैरगाह रही होगी तभी इसका नाम ये है। यहाँ से शिमला का मुख्य स्टेशन मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर था, मैंने गाड़ी वाले भैया को फोन कर दिया, उन्होंने मुझे गाड़ी का न. और रंग बता दिया ताकि हमें गाड़ी ढूंढ़ने में समस्या न हो। अगले 15 मिनट में हम लोग शिमला के मुख्य स्टेशन पहुँच गए थे, छोटे से इस स्टेशन पर पटरियाँ सीधे न होकर कर्व (गोलाई) में हैं, और न जाने क्यों इन सब दृश्यों ने मेरे दिल में एक अलग ही जगह बना ली थी।
फिर मिलेंगे कहीं किसी रोज़ घूमते फिरते।
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