किन्ही कारणों से अभी ये ब्लॉग इंग्लिश भाषा में उपलब्ध नहीं है। बहुत जल्द इंग्लिश भाषा में भी उपलब्ध कराने का प्रयास करूँगा।
For some reason this blog is not available in English. I will try to make it available in English soon.
2015, दिसंबर, मुझे नोइडा आए हुए अभी कुछ 3 4 महीने ही हुए थे और ये मेरी नोइडा की पहली सर्दियाँ थीं। सर्दियों का मौसम मुझे सबसे अच्छा मौसम लगता है, मुझे पूरी साल इस मौसम का इंतज़ार रहता है, और मेरी कोशिश रहती है कि सर्दियों में कम से कम मैं पहाड़ों की एक बार यात्रा तो कर ही लूँ। इस बार कहाँ जाया जाए इन सब पर विचार कर ही रहे थे कि मेरा बेहद खास दोस्त शशिकांत जो कि वैसे तो ग्वालियर का ही है और हाल फिलहाल नोइडा में ही कार्यरत है वो भी इस प्रस्तावित यात्रा में चलने को तैयार हो गया, जाना कहाँ था ये हमको अभी पता नहीं था मगर ये पता था कि कहीं तो जाएंगे ही।
अक्सर जब आप अपनी पत्नी या घरवालों के साथ होते हैं तो आप ऐसा यात्राओं में किसी और को शामिल करने से कतराते हैं, मेरे साथ उल्टा है, मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कोई और भी साथ चले तो अच्छा है, क्योंकि 2 से भले 3, 3 से भले 4 लोग होते हैं। कहाँ जाना है ये सोच रहे थे तभी फ़ेसबुक पर एक प्रचार वाली पोस्ट दिखी - ऋषिकेश कैम्पिंग और राफ़्टिंग। मैंने उसे थोड़ा खंगाला तो जो जानकारी मिली वो कुछ इस प्रकार थी, 1600 रु में कैम्पिंग और 15 किलोमीटर की राफ्टिंग और खाना पीना आदि सब पैकेज में शामिल था। शशिकांत से बात की तो उसने तुरंत चलने के लिए हामी भर दी। मैंने कैम्प के मालिक आकाश भाई से बात करने के बाद उन्हें 25 दिसंबर को तीन लोगों की बुकिंग के लिए एडवांस भेज दिया, अब बस हमें वहाँ जाना था।
यात्रा वाली रात घर से निकलकर मेट्रो पकड़ी और पहुँच गए कश्मीरी गेट से साधारण बस पकड़ी मगर टिकट ऋषिकेश की जगह हरिद्वार तक का लिया क्योंकि हम लोग सुबह काफी जल्दी पहुँच जाएँगे और उतनी जल्दी कैम्प साइट पर नहीं जाना है तो समय व्यर्थ करने की जगह उतने में हरिद्वार ही नाप लेंगे। बस चल दी और हमने एक तीन वाली सीट घेर ली, नेहा खिड़की की तरफ थी वो बस चलते ही सो गई, अब बचे शशिकांत और मैं, हमने पंचायत शुरू कर दी। बातों बातों में हम लोगों ने कब आधी दूरी तय कर ली पता ही नहीं लगा, थोड़ी देर के लिए सो गए जब नींद खुली तो हम लोग हरिद्वार पहुँचने वाले थे, जैसे ही गँगा मैया के दर्शन हुए मैंने सबको उठा लिया और अगले 15 मिनट में हम लोग हरिद्वार के बस स्टैंड पर अपना सामान लेकर उतर गए थे।
अभी दिन निकलने में समय था, वहीं बस स्टैंड के सामने एक चाय की दुकान पर जाकर चाय पीने के लिए बैठ गए। अख़बार वाले अलग अलग एरिया के अख़बार समेटने में लगे हुए थे, बाकि बस वाले सवारिओं को बुला रहे थे, माहौल में हल्की सी ठंडक थी। हम लोग चाय के कप के साथ पपड़ी लेकर बैठे हुए थे, यात्राओं में मुझे चाय पपड़ी का साथ बहुत अच्छा लगता है, चाय के साथ खाई जाने वाली पपड़ी को अलग अलग जगहों पर अलग अलग नाम से जाना जाता है, कहीं इसे फैन और कहीं इसे खस्ता के नाम से भी जानते हैं। चाय पपड़ी निपटाने के बाद हम लोगों ने अपना सामान उठाया और मन हुआ की चलो हर की पौड़ी घाट पर होने वाली आरती देख ली जाए, मैंने तुरंत एक ऑटो किया और चल दिए हर की पौड़ी घाट की तरफ।
पुजारी जी हाथ में आरती का थाल लिए हुए।
घाट पर पहुँचे तब तक अँधेरा हल्का सा छंट गया था और थोड़ी सी सूरज की लालिमा दिखने लगी थी, हमने यहाँ आने में 10 मिनट की देरी कर दी थी, आरती हो चुकी थी और अब आरती की थाली लिए पण्डे यहाँ वहाँ घूम रहे थे और लोग अपनी समर्थ अनुसार दान देकर आरती ले रहे थे। मैं अभी तक हरिद्वार 5 6 बार आ चूका हूँ मगर कभी ऐसे नहीं आता की इस आरती में शामिल हो पाएं, अगली बार पक्का आरती में शामिल होने की कोशिश करूँगा इस उम्मीद के साथ हम घाट से किसी चाय की दुकान की तरफ बढ़ दिए।
हर की पौड़ी घाट, हरिद्वार।
हर की पौड़ी घाट से दिखता मनसा देवी मंदिर।
हर की पौड़ी घाट पर फुरसत के कुछ पल बिताते हुए।
हर की पौड़ी घाट का खूबसूरत दृश्य।
पास ही एक चाय की दुकान पर चाय पीने के बाद घड़ी में समय देखा, अभी सुबह के 7:00 ही बजे थे, मेरा मन हुआ की चलो मनसा देवी के मंदिर के दर्शन किए जाएं और हम लोग वहीँ बाजार से होते हुए मनसा देवी के रोपवे टिकट काउंटर की तरफ चल दिए, वहाँ जाकर पता लगा की रोपवे सुबह 8 बजे शुरू होगा और एक घण्टे के समय में हम लोग आराम से पैदल जाकर नीचे वापिस भी आजाएंगे। नेहा का पैदल इतने ऊपर तक चल के जाने का कतई मन नहीं था परन्तु कोई और चारा नहीं था तो मन न होते हुए भी वो हमारे साथ चल दी। गिरते पड़ते, रुकते रूकाते हम लोग माता के भवन तक पहुँच गए, वहाँ पहुँच कर जूते उतारे और हाथ पैर धोने के बाद माता के दर्शन को चल दिए।
मनसा देवी के बारे में: साभार विकिपीडिया
मनसा देवी को भगवान शिव की मानस पुत्री के रूप में पूजा जाता है। इनका प्रादुर्भाव मस्तक से हुआ है इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा। महाभारतके अनुसार इनका वास्तविक नाम जरत्कारु है और इनके समान नाम वाले पति मुनि जरत्कारु तथा पुत्र आस्तिक जी हैं। इन्हें नागराज वासुकी की बहन के रूप में पूजा जाता है, प्रसिद्ध मंदिर एक शक्तिपीठ पर हरिद्वार में स्थापित है। इन्हें शिव की मानस पुत्री माना जाता है परंतु कई पुरातन धार्मिक ग्रंथों में इनका जन्म कश्यप के मस्तक से हुआ हैं, ऐसा भी बताया गया है। कुछ ग्रंथों में लिखा है कि वासुकि नाग द्वारा बहन की इच्छा करने पर शिव नें उन्हें इसी कन्या का भेंट दिया और वासुकि इस कन्या के तेज को न सह सका और नागलोक में जाकर पोषण के लिये तपस्वी हलाहल को दे दिया। इसी मनसा नामक कन्या की रक्षा के लिये हलाहल नें प्राण त्यागा।
मनसा देवी मंदिर के सामने स्थित एक पहाड़ से दिखता मनसा देवी मंदिर।
इस समय माता का मंदिर एक दम खाली था तो बड़े आराम से दर्शन किये और कुछ देर मंदिर परिसर में ही रहे और हमें किसी ने जाने को भी नहीं कहा क्यूंकि मंदिर में भीड़ न के बराबर थी। मंदिर दर्शन करके बाहर की तरफ चल दिए, वहाँ पर एक जगह प्रसाद रूप में हलवा और चने वितरित हो रहा था, बिना प्रसाद लिए आगे बढ़ने का कोई मतलब ही नहीं था, हम तीनों ने तीन दोने प्रसाद लिया और वहीँ पास में उसे बैठकर खाने लगे। हलवा सुद्ध देशी घी में बना हुआ था और इसका स्वाद अमृतुल्य था, मैंने एक दोने के बचा हुआ प्रसाद एक पन्नी में बांध कर रख लिया ताकि घर आकर भी ये स्वादिष्ट भोग खाने को मिल जाये।
प्रसाद खाने के बाद हमने अपने जूते आदि पहने और चल दिए इस पर्वत के भ्रमण पर, पर्वत से पूरा हरिद्वार शहर साफ़ दिखाई दे रहा था और सामने चण्डी देवी मंदिर का पहाड़ भी दिख रहा था, कुछ देर वहाँ बैठे रहे और कुछ तस्वीरें भी निकालीं। हम समतल में रहने वालों के लिए पहाड़ देखना और उन्हें महसूस करना एक उस स्वप्न की तरह है कभी कभार पूरा हो जाता है और जब पूरा होता है तब हमें लगता है की हम वहाँ से ज्यादा से ज्यादा यादें बटोर कर ला सकें, और यादें बटोरने का सबसे अच्छा साधन है तस्वीरें। काफी सारी यादें बटोरने के बाद हम लोग वापिस नीचे की तरफ चल दिए। नीचे आते आते सुबह के करीब 08:30 हो गए थे और इतनी मेहनत के बाद हम सबको जबरदस्त भूख लगी हुई थी, नीचे पहुँच कर वहीँ पर स्थित एक नाश्ते की दुकान पर बैठ गए और आर्डर दे दिया चाय और आलू के परांठे।
परांठे निपटाने के बाद हमने ऋषिकेश जाने वाला एक टेम्पो पकड़ा और चल दिए मेरे दिल के सबसे करीब वाले शहर ऋषिकेश की तरफ, हरिद्वार से ऋषिकेश के लिए बस और टेम्पो सेवा पूरे दिन उपलब्ध रहती है। टेम्पो ने अगले एक घंटे में हमें ऋषिकेश पहुँचा दिया था। ऋषिकेश से हमारा कैंप कुछ 20 से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित था जहाँ हमें 12 बजे तक पहुँचना था और अभी 10:00 ही बजे थे तो कुछ देर ऋषिकेश के किसी घाट पर बैठकर बिताने का मन बनाया और टेम्पो स्टैंड के नजदीक स्थित घाट की तरफ चल दिए।
ऋषिकेश स्थित एक हैंगिंग ब्रिज (झूला)।
थोड़ी देर वहाँ बैठने और कुछ तस्वीरें निकालने के बाद मैंने अपने कैंप के संचालक आकाश भाई को फोन लगाया, आकाश भाई ने बताया की शहर के छोर से बसें चलती हैं जो देव प्रयाग, श्रीनगर की तरफ जाती हैं उनमें से किसी भी बस में ब्यासी तक के लिए बैठ जाना और ब्यासी उतर कर मुझे फोन कर लेना, वहीं पास में है कैंप साइट। रूट की जानकारी लेकर मैंने फोन काटा और हम चल दिए बस स्टैंड की तरफ, एक बस लगी हुई थी, कंडक्टर से पुछा ब्यासी उतार दोगे उसने हाँ में सर हिलाया और हम उस बस में सवार हो गए।
ऋषिकेश से ब्यासी के रास्ते के बीच में कहीं।
करीब 45 मिनट के सफर के बाद हम लोग ब्यासी पहुँच गए, मैंने जेब में से फोन निकला और आकाश भाई को फोन मिला दिया, उन्होंने 5 मिनट में आने का कहकर फोन रखा और जब तक हमने चाय निपटाई वो हमारे सामने थे, मेल मिलाप के बाद हम लोग उनके साथ अपने कैंप की तरफ चल दिए।
आकाश भाई की कैंप साइट उस समय ब्यासी में ऋषिकेश बद्रीनाथ हाईवे से मुश्किल से 200 300 मीटर की दूरी पर थी, ये जगह पहाड़ों पर सीढ़ीओं की तरह जो खेती की जाती है जिसे स्टेप फार्मिंग कहा जाता है कुछ हद तक वैसी ही थी। हर एक स्टेप में 12 15 कैंप लगे हुए थे, वैसे तो आज यहाँ अच्छी खासी भीड़ होनी चाहिए थी क्यूँकि आज 25 दिसंबर का दिन था मगर किन्हीं कारणों से अभी यहाँ सिर्फ हम ही लोग थे, शाम तक कुछ और लोगों के आने की सम्भावना थी, खैर हमें क्या हम लोग काफी हैं टाइम पास करने के लिए। कैंप में वाशरूम एक दम साफ़ सुथरे थे, अपने कैंप में हमने अपना सामान रखा और फिर सबसे पहले नहाना धोना आदि किया और उसके बाद आकाश भाई ने खाना लगवा दिया। हमेशा की तरह यहाँ भी खाना गज़ब स्वादिष्ट था।
ब्यासी स्थित हमारा कैंप और शशिकान्त बैकग्राउंड में।
खाना खाने के बाद हम लोगों ने आधा घण्टे आराम करने का मन बनया और कैंप में लेट गए, शाम के 4 बजे के आसपास कैंप में कार्यरत एक बन्दे ने हमें आवाज देकर जगाया उठिये आपको ट्रैकिंग पर लेकर जाना है। हम उठकर हाथ मुंह धोकर तैयार हुए और चल दिए उस भाई के साथ छोटी सी ट्रैकिंग करने। जहाँ हमारा कैंप था वहाँ रोड के दूसरी तरफ काफी गहराई में गँगा मैया की की धारा है, तो ये लोग ट्रैकिंग के बहाने कैंप में आने वाले लोगों को वहाँ तक लेकर जाते हैं। रोड पर करने के बाद जंगल के बीच से होते हुए वो बंदा हमें एक पगडण्डी वाले रास्ते से नीचे नदी तक लेकर गया, काफी गहराई में थी गँगा मैया की धार, यहाँ मुझे सबसे ज्यादा ताज्जुब इस बात से हुआ की जब नदी चढ़ती होगी तब ये पूरी चढ़ाई जल मग्न हो जाती होगी तो कितनी गहरी हैं गँगा मैया इसका अंदाज़ा लगाना करीब करीब नामुमकिन ही है।
ट्रैक के दौरान गँगा मैया के घाट पर मैं।
प्रत्येक भारतीय के लिए गँगा मैया सिर्फ एक नदी न होकर इस देश की पहचान के रूप में है, ये मोक्ष दायिनी है। जहाँ हम थे वहाँ हम 3 लोग और हमारे गाइड कुल 4 लोगों के अलावा और कोई नहीं था। शांति इतनी की ज़ोर से चिल्लाओ तो आवाज गूँजते हुए हमारे पास ही आ रही थी, गँगा मैया की कलकल बहती धारा, ठंडा सा पानी, बड़े बड़े पत्थर और कहीं कहीं रेत, कुल मिलाकर ये था वहाँ का दृश्य।
ट्रैक के दौरान गँगा मैया के घाट पर बिखरे हुए पत्थरों का बेहद सुन्दर दृश्य।
हम लोग वहाँ पर अगले एक डेढ़ घंटे यूँही बैठे रहे, आजकल की ज़िंदगी में ऐसा वक़्त बहुत काम मिलता है जब आप अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं को भुला सिर्फ और सिर्फ प्रकृति की गोद में हों, और ये वक़्त ठीक वैसा ही था। जब हल्का सा अँधेरा होने लगा तो हमें लगा की अब हमें वापिस चलना चाहिए, मैंने ज़ोर से एक आवाज़ दी हमारे गाइड को जो हमें यहाँ पर छोड़कर आसपास कहीं जाकर बैठे हुए थे, आवाज़ सुनकर वो वापस आ गये और हम वापिस अपने कैंप की तरफ चल दिए, कैंप पहुँचे तो शाम की चाय और स्नैक्स तैयार थे, जल्दी से हाथ मुँह धोये और बैठ गए चाय की चुस्कियां लेने, और साथ में थे पकोड़े।
चाय की टेबल पर हमारे साथ हमारे कैंप के संचालक आकाश भाई भी थे, उनसे भी घुमक्कड़ी से लेकर और भी तमाम सारे विषयों पर बातचीत हुई, और हाँ हमेशा की तरह मैंने उन्हें अपने शहर ग्वालियर के बारे में भी तमाम सारी जानकारी दी। बातचीत का ये सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ तो सीधा रात के 8 बजे के करीब ख़त्म हुआ। 9 बजे के आसपास खाना लगा दिया गया और हमको खाने की टेबल पर आने का बुलावा आ गया। खाने में मटर पनीर, दाल, सुखी सब्जी, चावल और रोटी आदि थे, और खाना बेहतरीन स्वादिष्ट था। खाना निपटाने के बाद हम लोग थोड़ी देर वहीँ कैंप के आसपास टहलते रहे, आकाश भाई के कुछ दोस्त देहरादून से आये थे तो साथ व्यस्त हो गए। कुछ देर टहलने के बाद हमने सोने के मन बनाया और अपने कैंप की तरफ चल दिए, अच्छा यहाँ हमारे अलावा कोई और नहीं था तो इस समय सभी कैंप अपने ही थे, थकान बहुत ज्यादा थी तो पता ही नहीं लगा की लेटने के बाद कब नींद आ गयी।
अगले दिन सुबह नींद खुली चिडिओं की चहचहाहट से, उठाकर हाथ मुँह धोकर फ्रेश हुए, हाथ मुँह धोते समय समझ आ गया था कि इस समय गँगा मैया का पानी कितना जबरदस्त ठण्डा होगा, इतने ठण्डे पानी में राफ्टिंग मतलब कम से कम 3 घण्टे ऐसे ही पानी में रहना होगा, ये सोचकर हम सभी के मन से राफ्टिंग करने का प्लान ख़त्म सा होने लगा, फिर भी ये सोचा की चलो चाय नाश्ता करते हैं फिर सोचेंगे इस बारे में। सुबह 09:00 के आसपास नाश्ता लगाया गया, जो की बेहद ही स्वादिष्ट और अनलिमिटेड था तो हम लोगों ने दबा के खाया, खाने के बाद आकाश ने पुछा की अब बताओ आपको राफ्टिंग करनी है या नहीं? उनके देहरादून वाले दोस्त तैयार खड़े थे राफ्टिंग के लिए और अगर हम हाँ करते हैं तो हमें भी इन्हीं के साथ नीचे गँगा मैया की धार के पास ले जाया जाता। मगर हम लोगों ने मन कर दिया, आकाश भाई के दोस्तों में से एक दोस्त वापिस देहरादून निकल रहा था आकाश भाई के कहने पर वो हमें ऋषिकेश तक अपनी गाड़ी से छोड़ने को तैयार हो गया। हमने जल्दी से अपना सामना उठाया और गाड़ी में रखा और आकाश भाई को राफ्टिंग के पैसे हटाकर जो बिल हुआ था वो चुकता किया और चल दिए वापिस ऋषिकेश की तरफ मन में इस उम्मीद के साथ की फिर कभी गर्मिओं में आएँगे और तब करेंगे राफ्टिंग।
फिर मिलेंगे कहीं किसी रोज़ घूमते फिरते।
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