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जागेश्वर मंदिरों का इतिहास:
उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग २५० छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।
पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।
जानकारी के लिए बताना चाहूँगा की जागेश्वर को कुमाऊँ का "काशी" भी कहा जाता है।
हल्द्वानी से जागेश्वर जाने का गूगल मैप लिंक।
अगले मोड़ पर रोड़ के साइड से किसी प्राचीन मंदिर का गुम्बज़ दिखा, उसके मंदिर का पता नहीं था वहाँ सिर्फ गुम्बज़ ही था, और अगले 5 मिनट में हम लोग उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ के लिए पिछले काफी समय से लालहित थे, जागेश्वर मंदिर काम्प्लेक्स आ चूका था। मंदिर के समीप कुछ दुकानें थी जहाँ पर मैंने बाइक पार्क की, दुकानदार के कहने पर मैंने सामान बाइक पर ही छोड़ दिया बस कैमरा निकाला, प्रसाद लिया और चल दिए मंदिर काम्प्लेक्स की तरफ।
इस मंदिर काम्प्लेक्स में यात्रिओं के उपयोग की सभी सुविधाएं जैसे पब्लिक टॉयलेट (साफ सुथरा), जूता स्टैंड, प्रसाद की दुकानें आदि थे। वही जूता स्टैंड पर जूते उतारे और हाथ पैर धोकर चल दिए इस अध्भुत जगह के दर्शन को।
जागेश्वर धाम के दर्शन।
जागेश्वर धाम के प्रथम दर्शन।
सबसे पहले मंदिर काम्प्लेक्स में लगे हुए मानचित्र को देखा अलग बात है की पल्ले कुछ न पड़ा तो उसकी एक तस्वीर निकाल के सीधे मंदिरों के दर्शन को चल दिए। इस मंदिर काम्प्लेक्स में सबसे पहला और सबसे बड़ा मंदिर है "महामृत्युंजय मंदिर" तो सबसे पहले हम लोग उसी के दर्शन को चल दिए। ये काफी विशालकाय मंदिर है जिसकी दीवारें पत्थरों की बनी हुई हैं, और मंदिर निर्माण की शैली काफी हद तक वही है जो तुंगनाथ और केदारनाथ की है। मंदिर कितना प्राचीन है इसका अंदाज़ा हमें मंदिर की दीवारों को देख कर लग रहा था, मंदिर के अंदर का माहौल काफी भक्तिमय था और मन में अभी भी शिव स्तुति बज रही थी।
जागेश्वर धाम दर्शन।
"महामृत्युंजय मंदिर"
मंदिर के अंदर हल्का सा अँधेरा था, हम 2 वहाँ पुजारी जी के समक्ष बैठ गए और प्रसाद की टोकरी उनके सामने रख दी। पुजारी जी ने विधिवत पूजा शुरू की और पूरा मंदिर मंत्रोचारण से गूँजने लगा, मैं अपने परिवार और पूर्वज के नाम, गोत्र आदि बताने लगा और इस तरह पूजा संपन्न होने के बाद पुजारी जी ने हमने बातचीत शुरू की, कहाँ से आये हो, क्या करते हो आदि और इस स्थान का इतिहास और महत्व भी बताया। जिस तरह की पूजा उन्होंने संपन्न कराई थी ऐसी पूजा अगर आप यहाँ के अलावा और कहीं कराते हैं तो पुजारी हम से वहाँ पर हाथ पकड़ कर ₹500 रखवा लेंगे मगर मैंने यहाँ पुजारी जी को दक्षिणा स्वरुप ₹101 दिए और उन्होंने वो पैसे अपने पास न रखते हुए दान पेटी में डाल दिए, इससे मुझे ये समझ आ गया था की यहाँ पुजारिओं द्वारा पूजापाठ पैसों के लिए नहीं कराई जाती है।
मंदिर काम्प्लेक्स काफी बड़ा था और इसमें छोटे बड़े बहुत सारे मंदिर थे, समझ नहीं आ रहा था की कहाँ से शुरू करें और कहाँ ख़त्म। इसी कश्मकश में महामृत्युंजय मंदिर से बाहर निकले और घड़ी की दिशा में आगे बढ़ दिए, महामृत्युंजय मंदिर के एक दम सामने हवन कुण्ड था, उसमें सुबह हुए हवन की महक और हल्का हल्का उठता धुआँ इस वातावरण को और ज्यादा भक्तिमय बना रहा था। इतने सारे मंदिरों में से मुझे समझ नहीं आ रहा था की किसकी तस्वीर लूँ किसकी नहीं, एक एक करके हम सारे मंदिरों के दर्शन करते जा रहे थे।
मंदिर काम्प्लेक्स में कुछ बेहद ही ऊँचे वृक्ष भी थे, जिनकी ऊँचाई करीब 100 से 150 फुट रही होगी, ये वृक्ष अन्य वृक्षों से एक दम अलग थे, नीचे से एक ही तना और थोड़ा ऊपर जाकर तने दो रहे थे और फिर एक दम सीधे खड़े हुए, वहाँ के स्थानीय लोगों के अनुसार ऐसे सभी वृक्षों में शिव पार्वती जी का वास है, और हो भी क्यों न यहाँ कण कण में शिव ही बसे हैं। हम एक तरफ से सभी मंदिरों के दर्शन करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे, महामृत्युंजय मंदिर के दूसरी तरफ मंदिर काम्प्लेक्स में एक चैनल गेट लगा हुआ था जिसको पार करके मैं मंदिर काम्प्लेक्स के बाहर पहुँच गया, यहाँ एक दम सामने एक नदी बह रही थी जिसमें उस समय पानी ज्यादा नहीं था, मंदिर में मौजुद लोगों से जानकारी मिली की इस नदी का नाम "जटा गंगा" है। कुल मिलाकर ये नदी यहाँ की सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी, इसका बेहद शान्त बहता पानी किसी को भी इसके समीप कुछ समय बिताने के लिए मजबूर कर सकता था और अपन तो है हीं पानी वाले स्थानों के मुरीद, जीन्स समेटी और प्रणाम करके नदी में उतर गए।
जटा गँगा का मनमोहक नज़ारा।
पानी काफी ठंडा और साफ़ था, वही पास में एक छोटा सा पहाड़ी झरना भी बह रहा था जो बहुत ही सुकून दे रहा था। मैं कुछ देर यूँही पानी में इधर उधर विचरण करता रहा फिर बाहर आकर अन्य मन्दिरों के दर्शन करे और फिर से महामृत्युंजय मंदिर के द्वार पर पहुँच गए, वो पुजारी जी जिन्होंने पूजा कराई थी उनके साथ एक तस्वीर निकलवाई और मंदिर काम्प्लेक्स के बाहर आ गए।
हमें लगा हमने सारे मंदिर देख लिए हैं मगर बाहर जाने के बाद ध्यान गया तो देखा की दाएँ हाथ पर एक रास्ता जा रहा जिस पर थोड़ा आगे जाकर जटा गँगा पर एक छोटा सा पुल बना हुआ था और उसके आगे भी कुछ मंदिर थे, बस फिर क्या था उधर ही मुड़ गए। वहाँ कुछ छोटे और एक बड़ा मंदिर था जो की कुबेर भगवान का था, गज़ब माहौल और आसपास का नज़ारा था यहाँ पर। कुछ तस्वीरें यहाँ पर भी निकालीं और वापिस चल दिए।
कुबेर मंदिर और उसके साथ के कुछ अन्य मंदिर।
बहुत ज़ोरों की भूख लगी थी तो वहीँ पास में एक छोटा सा रेस्टॉरेंट या इसे ढाबा भी कह सकते हैं वहाँ बैठ गए और खाने का आर्डर कर दिया। पहाड़ों में मेरी कोशिश रहती है बेहद ही साधारण भोजन करने की क्यूंकि पनीर वगैरा तो शहरों में भी खा लेते हैं और पहाड़ों के साधारण भोजन के भी क्या कहने, उँगलियाँ चाटते रह जाओ।
उम्मीद के अनुसार ही बेहद स्वादिष्ट भोजन आया, जीरा आलू के तो कहने ही क्या मज़ा आ गया भोजन करके। भोजन करने के बाद अब हमको तय करना था आगे क्या? अभी दोपहर के 4 बजे थे यानी की अगर हम चाहें तो आगे बागेश्वर तक जा सकते थे या वापिस अल्मोड़ा भी निकल सकते थे। इसी कशमकश में मेरे ज़हन में एक मूवी की बेहद ही सटीक लाइन सुनाई देने लगीं - "हम कितनी भी कोशिश कर लें कहीं न कहीं कुछ तो छूटेगा ही, तो क्यों न यहीं इस जगह का आनंद लेते हैं"।
अब मुझे पता था की आगे कहाँ जाना है और क्या करना है, मैंने उसी रेस्टॉरेंट पर मौजूद स्टाफ से आसपास कुछ रुकने की व्यवस्था की जानकारी ली, वही पास में दो होमस्टे उपलब्ध थे जिनका किराया क्रमशः 1000 और 500 था, मैंने दोनों देखने के बाद 500 वाला ले लिया। हमारा होमस्टे मंदिर काम्प्लेक्स से बमुश्किल 50 मीटर की दूरी पर था जिसकी खिड़की से सामने देखो तो जटा गंगा और बगल से देखो तो मंदिर काम्प्लेक्स के दर्शन हो रहे थे, बाथरूम में गीजर लगा हुआ था। सच बताऊँ तो ये किराया इन नज़ारों के आगे सुण्य था।
डंडेश्वर महादेव मंदिर में स्थित कुछ अन्य मंदिर।
रूम लेकर सामान रूम में रखा और मैं वहीँ खिड़की पर कुछ देर बैठा रहा, कुछ था यहाँ के माहौल में जो मुझे बाँधे हुए था, आधे घण्टे खिड़की पर बैठे रहने के बाद हम फिर से चल दिए वापिस डंडेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन करने, भगवान शिव यहाँ लिंग रुपी ना होते हुए, शिला के रूप में हैं। वहाँ हमारे और मंदिर के पुजारी के अलावा कोई और नहीं था, मंदिर के दर्शन करके पूजा आदि करने के बाद मंदिर प्रांगण में मौजूद अन्य मंदिरों के दर्शन करे। मुख्य मंदिर से थोड़ा दूर एक और मंदिर था जिसके पीछे हरे घास के मैदान थे जो इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे। इस माहौल को देख कर यही लग रहा था की यहाँ आज भी शिव का वास है। मंदिर प्रांगण से होकर जटा गँगा निकल रहीं थीं, बस वहीँ थोड़ी देर बैठे रहे ताकि इस जगह से ज्यादा से ज्यादा यादें अपने साथ ले जा सकें।
डंडेश्वर महादेव मंदिर का मनमोहक नज़ारा।
डंडेश्वर महादेव दर्शन। भगवान शिव यहाँ लिंग रुपी ना होते हुए, शिला के रूप में हैं।
डंडेश्वर महादेव मंदिर से होकर गुज़रती जटा गँगा के पास बैठकर फुर्सत के कुछ पल बिताते मैं और नेहा।
कुछ देर यहाँ बैठने के बाद वापिस रूम पर पहुँच गए और मैंने टीवी चालू करके देश दुनिया की खबर ली, फोन में नेटवर्क आ रहा था मगर इन्टरनेट सेवाएं काम नहीं कर रहीं थीं। थोड़ी देर आराम करने के बाद हम लोग फिर से तैयार हुए और चल दिए बाहर शाम के मौसम का लुत्फ़ उठाने, कुछ बच्चे नदी में पैर डाले बैठे थे जो किसी सैलानी के थे बाकी नदी के आसपास हमारे अलावा कोई नहीं था। शिवरात्रि और नागपंचमी पर इस स्थान पर काफी लोग आते हैं उनके लिए कुछ पब्लिक टॉयलेट बने हुए थे, पूरे क्षेत्र में बैटरी वाली लाइट लगी हुईं थी जो की अगले आधा घंटे में सूर्य देवता के अस्त होते ही जल गयी थीं। हम लोग आधा घंटे वहीँ टहलते करते रहे, वहीँ पास में एक संग्रालय भी था जो की अब बंद हो चूका था, इसको देखने सुबह आएंगे ऐसा मन बना कर हम एक बार फिर से मंदिर काम्प्लेक्स की ओर चल दिए। सभी मंदिरों में संध्या आरती हो रही थी, पूरा माहौल भक्तिमय था, एक बार फिर से पूरे काम्प्लेक्स की परिक्रमा की और फिर कुछ देर वहीँ बैठे रहे। गज़ब का माहौल था यहाँ पर, मन था की बस यहीं के हो जाएं मगर कुछ मजबूरियाँ थीं। अँधेरा हो चला था तो सोचा आसपास टहल के आते हैं और जिस रास्ते से हम लोग यहाँ आये थे उस पर टहलने चल दिए। एक ग्रुप टेम्पो ट्रैवलर से आया हुआ था उन्होंने हमारी बाइक देख कर बाइक के साथ कुछ फोटो निकलवाने की इच्छा जाहिर की जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। टहलते हुए वहाँ तक गए जहाँ तक बाज़ार था और फिर वापिस आ गए उसी जगह जहाँ सुबह खाना खाया था।
पहाड़ों में ऐसे स्थानों पर जो खाने पीने की दुकानें आदि होती हैं वो 8 बजे बंद हो जाती हैं तो खाना खाने का भी वक़्त हो गया था। खाने का ऑर्डर दिया और अगले 10 मिनट में खाना हमारे सामने था, हमने खाना शुरू कर दिया तभी मेरी नज़र मेरी बेंच के नीचे बैठे एक पिल्ले पर गयी जो कि इस उम्मीद में मेरी तरफ आँखे करे हुए था कि शायद मैं उसे कुछ खाने को दूँगा। मैंने उसे अपनी रोटी में से टुकड़े करके उसे डालना शुरू कर दिए और वो मजे से उन्हें खाने लगा। हमारा खाना निपट चुका था पर इन भाई साहब की भूख अभी खत्म नहीं हुई थी तो मैंने एक रोटी और मंगाई और तब तक वहीं बैठे रहे जब तक वो रोटी खत्म न हुई उसके बाद पैसे का हिसाब किताब करके हम लोग अपने ठिकाने की तरफ चल दिए और ये भाई साहब भी हमें हमारे ठिकाने तक छोड़ने हमारे साथ आए और इतना ही नहीं रात के करीब 10 बजे तक वहीं हमारे गेट के पास बैठे रहे फिर जब हम सो गए और इन्हें लगा कि हम सुरक्षित और आराम से हैं तब ये वहाँ से गए।
खाने की टेबल पर मेरा और नेहा का साथ देते ये हमारे मित्र।
करीब 9 बजे के आसपास पास में एक व्यक्ति डुगडुगी बजा रहा था जो शायद इस बात का सूचक थी की अब सोने का समय हो चूका है। वो रात बेहद सुकून से गुज़री, मैं उस रात आधा घंटे टीवी देखने के बाद जल्दी सो गया, जल्दी यानि की करीब 09:30 बजे, ऐसा बरसों बाद हुआ है नहीं पिछले 2 सालों से ऑफिस से घर ही इस टाइम पर आ पाता हूँ, अब शामें तो सिर्फ सप्ताहान्त पर देखने को मिलती हैं, बाकि दिन तो सीधे रात हो जाती है। मेरे जैसे लोगों को बड़े शहरों में रहने की काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। सुबह 6 बजे का अलार्म लगा कर सोया था मगर नींद 05:30 पर अपने आप खुल गयी, खिड़की खोलकर बाहर देखा बाहर हल्का सा अँधेरा था। मैंने नित्य कर्म निपटाए और गरम पानी से सुकून से नहाया, नेहा अभी भी सो रही थी। बाहर जाकर देखा तो ठीकठाक ठण्ड थी, अंदर से जैकेट ली, बाइक की चाभी उठाई और रूम के बाहर ताला लगाया और सोचा डंडेश्वर महादेव मंदिर तक होकर आया जाए और इसी हिसाब से बाइक चालू करके उस तरफ चल दिया...
इस यात्रा पर यहीं विराम लगते हैं, अगले भाग में आपको वृद्ध जागेश्वर के दर्शन करवाऊँगा तब तक मेरी अन्य यात्राओं की कहानी पढ़ते रहिये।
नोट: इस ब्लॉग को लिखते समय में तस्वीरों का चयन नहीं कर पा रहा था और उसका कारण था तस्वीरों का सँख्या में बहुत ज्यादा होना और सभी तस्वीरें बेहद खूबसूरत थीं। ब्लॉग के अलावा जो तस्वीरें हैं वो आप मेरे फेसबुक पेज पर यहाँ देख सकते हैं।
फिर मिलेंगे कहीं किसी रोज़ घूमते फिरते।
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