किन्ही कारणों से अभी ये ब्लॉग इंग्लिश भाषा में उपलब्ध नहीं है। बहुत जल्द इंग्लिश भाषा में भी उपलब्ध कराने का प्रयास करूँगा।
For some reason this blog is not available in English. I will try to make it available in English soon.
कनाताल - एक छोटा सा पहाड़ी गाँव है जो उत्तराखंड के टिहरी गढवाल जिले में चंबा - मसूरी हाइवे पर स्थित है। यह सुंदर गाँव समुद्र सतह से 8500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। आसपास रहने वाले लोगों के लिए यह एक प्रसिद्द सैरगाह है। हरा भरा वातावरण, बर्फ से ढंके पहाड़, नदियाँ और जंगल इस स्थान की सुंदरता को बढ़ाते हैं। दिल्ली में रहने वाले लोगों के लिए ये सबसे नजदीक स्थान है जहाँ वो सर्दिओं में बर्फ़बारी का आनंद ले सकते हैं।
इस स्थान का नाम कनाताल झील के नाम पर पड़ा जो कई वर्ष पूर्व अस्तित्व में थी, परंतु अब इस झील का नामो निशान नहीं है। कानाताल के अनेकों आकर्षणों में से एक सुरकण्डा देवी मंदिर है जो पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय है। एक लोककथा के अनुसार जब भगवान शिव हिंदू देवी सती के शरीर को कैलाश पर्वत लेकर जा रहे थे तो इसी स्थान पर देवी का सिर गिरा था। वे स्थान जहाँ देवी के शरीर के हिस्से गिरे वे शक्ति पीठ के नाम से जाने जाते हैं और सुरकण्डा देवी मंदिर उनमें से एक है।
एक दिन यूँही फ्री टाइम में इंटरनेट पर कुछ देखते हुए ये सारी जानकारी प्राप्त हुई, ये सब पढ़ने के बाद मन हुआ यहाँ जाने का क्यूँकि ये एक शांत सा स्थान है जहाँ ज्यादा लोग नहीं जाते और मैं ऐसे ही स्थानों की खोज में रहता हूँ, तो आगे कभी यहाँ जाने का प्लान करेंगे।
कैसे जाएं:
दिल्ली से कनाताल जाने के 2 रास्ते हैं:
ऋषिकेश होकर: दिल्ली - हरिद्वार - ऋषिकेश - नरेंद्रनगर - चम्बा - कनाताल। इस रास्ते पर आखिरी रेलवे स्टेशन ऋषिकेश है।
देहरादून होकर: दिल्ली - देहरादून - मसूरी - धनौल्टी - कनाताल। इस रास्ते पर आखिरी रेलवे स्टेशन देहरादून है।
इसके अलावा नजदीकी एयरपोर्ट देहरादून में है।
कहाँ रूकें:
कनाताल में रुकने के लिए क्लब महिंद्रा का रिसोर्ट, कुछ होटल्स और काफी सारी कैंप साइट्स हैं जहाँ आप अपने बजट के हिसाब से रुक सकते हैं।
कब जाएं:
कनाताल आप बारह महीने में कभी भी जा सकते हैं, बस बरसात में ये देख लें की भूस्खलन आदि की वजह से कहीं सड़कें बंद न हों।
दिसंबर 2016, मेरे पास साल के अंत में कुछ छुट्टियाँ बची हुईं थी तो मन हुआ कहीं जाने का, कहाँ जाया जाए ये सोच ही रहे थे की सबसे पहला नाम जहन में आया कनाताल का। फेसबुक पर थोड़ी खोजबीन की तो देखा काफी सारी ट्रेवल एजेंसी वहाँ नव वर्ष पर ले जाने के पैकेज दे रहीं हैं। 31 दिसंबर की तारीख़ तय हुई यात्रा पर जाने की, अब चूँकि 31 दिसंबर को हर जगह अच्छी खासी भीड़ होती है और होटल आदि भी महँगे होते हैं तो मेरा मन हुआ इस बार ये यात्रा किसी ग्रुप के साथ करने का। खोजबीन में एक (नयी) कंपनी मिल गयी जो 31 दिसंबर को एक ग्रुप लेकर कनाताल जा रही थी, उनसे बात हुई और हम भी उनके साथ हो लिए। ग्रुप में जाने के अपने फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी हैं, ये बात मुझे इस यात्रा के बाद समझ आयी।
खैर 31 दिसंबर की शाम या फिर मैं इसे रात कहूँ तो ज्यादा ठीक होगा, रात को तय स्थान, समय पर हम लोग पहुँच गए, मगर जिस टेम्पो ट्रैवलर से हमें जाना था वो उस स्थान पर करीब 1:30 घंटे लेट आयी और उसके अगले आधा घण्टे सब लोगों ने बैठने और सामान रखने में निकाल दिया और करीब रात के 11 बजे हम लोग दिल्ली से हरिद्वार हाईवे की तरफ बढ़ने लगे।
कुछ लोगों ने अपने ब्लूटूथ स्पीकर निकाल कर बजाने शुरू कर दिए, वो अलग बात है की उसमें कोई भी गाना पूरा नहीं बज पा रहा था, हर मिनट पर गाना बदला जा रहा था, कुछ लोगों ने धुएँ की महफ़िल भी लगा ली थी, इन सब के बीच मैं और नेहा अपनी एक अलग दुनिया में थे। नेहा को मोशन सिकनेस की दिक्कत है तो वो गोली खाकर सोने की नाकामयाब कोशिश कर रही थी और मेरे मन में चल रहे थे उत्तराखंड के पहाड़ों के दृश्य। टेम्पो ट्रेवलर की पीछे की सीट पर सोने बहुत मुश्किल होता है मगर फिर भी थकान की वजह से मैं रात में 2 बजे के करीब सो गया और जब आँख खुली तो हम लोग हरिद्वार पहुँच गए थे और सबसे पहले दर्शन हुए गँगा मैया के, मैंने झुककर प्रणाम किया और यहाँ से हम ऋषिकेश की तरफ बढ़ दिए। हल्का सा उजाला हो गया था और ऊपर से अब हम पहाड़ों में थे तो सोने का तो मतलब ही नहीं था, मुझे पहाड़ देखने में, उन्हें महसूस करने में एक अलग ही आनंद आता है और मैं यही कर रहा था। ऋषिकेश पार करने के बाद हमारे टूर ऑपरेटर ने जब बहुत सारे स्थानों पर आगे के रास्ते के बारे में पता करना शुरू किया तो मुझे समझ आ गया की इन लोगों की पहली ट्रिप थी, यानी की हम इनके लिए ट्रायल बॉल की तरह थे, लग गया तो सिक्स, नहीं आउट भी हो जाएंगे तो कोई दिक्कत नहीं थी।
कनाताल के रास्ते में कहीं।
खैर पूछते हुए हम लोग आगे बढ़ने लगे और रास्ते में एक आद जगह चाय नाश्ता किया गया। हमें अपने कैंप में 9 बजे के आसपास पहुँचाना था मगर लुढ़कते लुढ़कते हम लोग करीब 11 बजे अपने कैंप में पहुँचे। कुल मिलकर हम लोग 20 के आसपास थे और हमारे रुकने का इंतजाम 2 अलग अलग कैंप में था, यानि की आधे लोग इधर आधे लोग उधर, जिस कैंप में हम लोग रुके थे उसका नाम था "कनाताल ऑर्किड्स", ये पहाड़ों में बसा हुआ एक साफ़ सुथरा कैंप है जिससे मौसम साफ़ होने पर हिमालय पर्वत श्रृंखला के दर्शन भी होते हैं। थोड़ी देर कैंप में आराम करने के बाद भोजन लगाया गया, यहाँ मैं आपको एक बात बताना चाहूँगा की पहाड़ों में आज तक मुझे कहीं भी ख़राब खाना खाने को नहीं मिला, यहाँ तक की साधारण दाल जो की पहाड़ों के पानी में बनी हुई हो उसमें अलग ही स्वाद आता है, ठीक उसी तरह यहाँ का भी खाना बेहद ही स्वादिष्ट था।
आखिर हम पहुँच ही गए।
कैंप से आसपास का नज़ारा कुछ यूँ दिखता है।
कैंप से आसपास का नज़ारा कुछ यूँ दिखता है।
कैंप से आसपास का नज़ारा कुछ यूँ दिखता है।
खाना खाने के बाद तय कार्यक्रम के अनुसार हमें सुरकण्डा मंदिर के ट्रैक या जंगल के ट्रैक पर जाना था, अब चूँकि सुरकण्डा मंदिर का ट्रैक एक तरफ से 3 किलोमीटर का था तो वहाँ जाने के लिए कोई भी राज़ी नहीं हुआ तो पहाड़ का एक छोटा सा ट्रैक तय हुआ और सब लोग अपनी पानी को बोतल, कैमरा आदि लेकर चल दिए और हमारे साथ थे कैंप के एक बन्दे जिन्हे वहाँ के प्रत्येक रास्ते की जानकारी थी।
ट्रैकिंग के दौरान मैं और नेहा।
कैंप से थोड़ा सा आगे चलने के बाद हम लोग एक समतल सी सड़क पर थे और हमारे दाएं हाथ पर थी हिमालय श्रृंखला और भाग्यवश हमें चाँदी (बर्फ) के कुछ पहाड़ों के दर्शन भी हो रहे थे, सब लोगों ने कैमरा निकाला और लग गए उस दृश्य को कैद करने में, मैं भी उसी लाइन में था। यहाँ कुछ तस्वीरें निकालने के बाद हम लोग आगे पहाड़ की तरफ बढ़ दिए, ठण्ड काफी ज्यादा थी तो थोड़ा आगे चलने के बाद नेहा का और आगे तक जाने का मन नहीं हुआ तो हम दोनों वापसी अपने कैंप की तरफ चल दिए और बाकी लोग आगे चले गए।
कैंप के बगल से एक चाय की दुकान थी जहाँ पहुँचकर हमने 2 2 चाय, नमकीन और बिस्कुट का आनंद लिया और वहाँ मौजूद लोगों से बातचीत की, बातचीत में उन लोगों ने बताया की यहाँ हर साल सर्दिओं में ठीकठाक बर्फ पड़ती है और उसका सबसे बड़ा कारण है यहाँ बसाहट न के बराबर होना और हरियाली काफी ज्यादा होना। चाय निपटा के हम लोग वापिस अपने कैंप में जाकर थोड़ी देर यूँही बैठे रहे, जैसे ही सूरज देवता ने विदा ली सर्दी ने अपना कहर ढाना शुरू कर दिया था।
अपने कैंप के पास खड़े होकर एक फोटो निकलवाना तो बनता है।
शाम की चाय और स्नैक्स का समय हुआ, चाय की गर्माहट से थोड़ा सा सुकून मिला, पहाड़ों में चाय, पकोड़े खाने का एक अलग ही आनंद है और हम यही आनंद ले रहे थे। चाय निपटाने के बाद हम लोग थोड़ी देर अपने कैंप में रजाई में बैठे रहे वो अलग बात है की रजाई खास काम नहीं रही थी। शाम के 7 बजे ही अच्छी खासी ठण्ड हो चुकी थी और कैंप के खुले एरिया में 3 4 जगह पर आलाव (बॉनफायर) जला दिए गए थे, बिना इनके खुले में बैठना नामुमिन था। हिम्मत करके कैंप के बाहर निकले और ऐसे ही एक अलाव का सामने अपनी कुर्सियाँ जमा लीं और थोड़ी ही देर में डीजे शुरू हो गया था। अगले कुछ घंटों में हम अँग्रेजी नववर्ष में प्रवेश करने जा रहे थे, और ये नाच गाना आदि उसी के स्वागत के लिए थे।
बॉनफायर का आनंद लेते हुए।
डीजे शुरू हुआ कुछ गानों पर मैं और नेहा अपने आप को रोक नहीं पाए और डांस फ्लोर पर पहुँच गए, नाचने का एक फायदा है की नाचते समय सर्दी कम लगती है :P, इसी वजह से जो एक बार हम चालू हुए फिर करीब अगले एक घण्टे बाद रुके। कुछ लोगों ने जौ के पानी की बोतलें खोल लीं थीं और वो अलग ही अंदाज़ में नाच रहे थे, कुल मिलाकर माहौल में काफी ऊर्जा थी और उसी में सब मस्त थे। देखते देखते रात के 12 बज गए, केक काटा गया और फिर लगाया गया खाना जिसका काफी लोगों को बेसब्री से इंतज़ार था जिनमें सबसे आगे हम थे।
खाना खाकर सीधे अपने कैंप का रुख किया, बाहर कुछ लोगों की जौ के पानी की बोतलें अभी भी चल रहीं थीं और डीजे को भी अब लोगों ने अपने मोबाइल के ब्लूटूथ से कनेक्ट कर लिया था और हर 30 सेकंड में गाने बदले जा रहे थे। कैंप में जाकर देखा था बाथरूम में पानी नहीं आ रहा था, संचालक से बात की तो पता लगा की अब ठण्ड बहुत ज्यादा है और पानी की लाइन में पानी जमना शुरू हो जाता है और इस स्थिति में कई बार पानी के पाइप फट जाते हैं तो अब पानी आपको बाल्टी में या अपनी बोतल में लेकर रखना होगा, मरता क्या न करता बोतले में ही पानी लेकर रख लिया।
ठण्ड अब अपने पूरे शबाब पर थी, या यूँ कहूं जानलेवा अंदाज़ में थी, मैंने संचालक से हम दोनों के लिए एक एक अतिरक्त रजाई की मांग की जो उन्होंने तुरंत उपलब्ध भी करा दी मगर उससे भी कोई खास अंतर नहीं पड़ा। यहाँ सबसे जरुरी बात जो हमें समझ आयी वो ये थी की सर्दिओं में विंटर कोट या इनर पहनना बहुत ही जरुरी है और इस बार हमने ये बिना पहने यहाँ आकर जीवन की सबसे बड़ी भूल की थी, खैर जैसे भी हो हमने वो रात बड़ी ही मुश्किलों में काटी।
सुबह उठकर देखा तो पाया की हमारे कैंप के ऊपर की ओस जमी हुई थी।
हर रात की तरह इसका भी अंत हुआ और सुबह के सूरज ने दस्तक दी, उठकर देखा तो हम 2 जीवित थे, प्रभु को धयवाद किया और कैंप से बाहर आकर देखा तो पाया की कैंप के ऊपर की ओस जमी हुई थी, नीचे घास भी जमी हुई थी जिसे देखकर रात की ठण्ड का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। कैंप संचालक के निर्देश पर गरम पानी होने रख दिया गया था जिससे हमने नित्यकर्म किए और फिर चाय नाश्ता लगाया गया। हमारे कैंप के बगल वाले कैंप में कुछ लड़के लड़कियाँ गिटार वगेरा साथ लेकर आए थे और उनमें से एक अपने कैंप के सामने गिटार के साथ एक गाना गा रहा था
"जो दिल से लगे उसे केह दो हाय हाय हाय जो दिल न लगे उसे केह दो बाय बाय बाय, आने दो आने दो दिल में आ जाने दो केह दो मुस्कराहट को हाय हाय हाय हाय जाने दे जाने दो दिल से चले जाने दो केह दो घबराहट को बाय बाय बाय बाय बाय बाय..लव यू ज़िन्दगी"
मैं एक पल के लिए वहीँ रुककर उसके गाने को सुनने लगा, खैर तो ये "डिअर ज़िन्दगी" मूवी का गाना है मगर लिखने वाले ने इन 2 लाइन में ज़िन्दगी को आसान बनाने का तरीका बताया है और जो वाकई में सही भी है पर न जाने क्यों हम इस जीवन को अधिक से अधिक जटिल बनाने में लगे हुए हैं। जैसे ही उस बन्दे ने गण बंद किया मैं उससे मिलने उसके पास पहुँच गया, परिचय किया, उसके गाने की तारीफ की और उसके बाद अपने कैंप में आकर अपना सामान समेटना शुरू कर दिया, थोड़ी देर में हमें यहाँ से निकलकर एक एक्टिविटी के लिए जाना था।
तैयार होकर हम लोग चल दिए रॉक क्लाइम्बिंग (पहाड़ों पर रस्सी की मदद से चढ़ना) एक्टिविटी के लिए जो की इस कैंप की एक्टिविटीज लिस्ट का हिस्सा थी। अपने कैंप से हम लोग रॉक क्लाइम्बिंग साइट पर पहुँच गए जहाँ रॉक क्लाइम्बिंग की टीम तैयार थी हमें ये एक्टिविटी कराने के लिए। वहाँ पहुँचकर एक युवक ने सबसे पहले इस एक्टिविटी को करने की इच्छा जाहिर की और सभी ने उसकी इस इच्छा को मानते हुए उसे सबसे पहले जाने दिया। वो युवक चीते सी फुर्ती दिखाते हुए पहाड़ चढ़ने लगा, मगर उतारते समय उसने इंस्ट्रक्टर की बातों पर ध्यान नहीं दिया और इस वजह से गिरता पड़ता हुआ नीचे आया, लोगों ने इस दौरान उसकी काफी तस्वीरें निकालीं और वीडियो भी बनाए जो शायद बाद में किसी हँसी ठिठोली वाले फेसबुक पेज की शोभा बढ़ाने के काम आएं। ये सब देखकर मैंने सबसे आखिर में जाना तय किया ताकि वापिस आने की ट्रिक समझने के बाद ही में इस एक्टिविटी के लिए जाऊं, और सबसे आखिर में जाने की वजह से मैं उन सब लोगों में सबसे जल्दी ऊपर जाने और बिना गिरे वापिस आने में दूसरे न. पर आया, काफी सुकून मिला ऐसा करके।
इस जंगल में रॉक क्लाइम्बिंग की साइट थी।
रॉक क्लाइम्बिंग पर हाथ आजमाते हुए।
यहाँ से फ्री होकर हमें अपने अगले पड़ाव टिहरी डैम की तरफ जाना था, टिहरी डैम की यात्रा का विवरण अगले भाग में मिलेगा।
फिर मिलेंगे कहीं किसी रोज़ घूमते फिरते।
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